भारतीय इतिहास में तराईन का युद्ध ( Battle of Tarain ) एक ऐसा युद्ध था जिसने मुगलों के लिए मार्ग प्रशस्त किया । यह युद्ध पृथ्वीराज चैाहान और मोहम्मद गौरी के बीच लड़ा गया था। कौन है पृथ्वी राज चैाहान और मोहम्मद गौरी ? क्यों लड़ा गई यह लड़ाई जानने के लिए इस ब्लाॅग को अंत तक पढ़िए
पृथ्वी राज चैाहान एक परिचय
पृथ्वीराज को राय पिथौरा कहा जाता था। वे दिल्ली और अजमेर के राजा थे ।
मुहम्मद गौरी 1190 तक सम्पूर्ण पंजाब में राज करता था। और भटिंडा से अपना राजकाज करता था। चैाहान साम्राज्य स्थापित करने के लिए पृथ्वी राज चैाहान को पंजाब में कब्जा करना जरूरी था। और इसीलिए गौरी से निपटने का फैसला किया।
मुहम्मद गौरी 1190 तक सम्पूर्ण पंजाब में राज करता था। और भटिंडा से अपना राजकाज करता था। चैाहान साम्राज्य स्थापित करने के लिए पृथ्वी राज चैाहान को पंजाब में कब्जा करना जरूरी था। और इसीलिए गौरी से निपटने का फैसला किया।
12 वीं सदी के पहले इन क्षेत्रों में उनका दबदबा था। वे अपनी वीरता और कौशल के लिए काफी प्रसिद्ध थे। वे उत्तर भारत में चैाहान Dynasty (1166 से 1196 तक चले ) के प्रमुख शासक थे। थे। पृथ्वीराज चैाहान का जन्म अजमेर राज्य के वीर राजपूत महाराजा सोमश्वर के यहाँ हुआ था। उनकी माता का नाम कपूरी देवी था जिन्हें बारह वर्षों के बाद पुत्र रत्न कि प्राप्ति हुई थी। पृथ्वी राज की सेना में 300 हाथी ओर तीन लाख सैनिक थे। वे तलवार बाजी के जबरदस्त शौकिन थे । कहते हैं बचपन में उन्होंने शेर के साथ एक लड़ाई में शेर का जबड़ा फाड़ दिया था।
अफगानिस्तान में स्थित छोटे से घोर या गोर राज्य में शासक था मोहम्मद गोरी । उसने गजनी पर कब्जा कर लिया इसके बाद गजनी को अपने भाई को सौंप कर भारत की तरफ अपना ध्यान लगाया । भारत में मुस्लिमों को स्थापित करने का श्रेय मुहम्मद गोरी को जाता है।
पढ़िए तुर्की आक्रमण के बारे में
कौन है मोहम्मद गौरी ?
अफगानिस्तान में स्थित छोटे से घोर या गोर राज्य में शासक था मोहम्मद गोरी । उसने गजनी पर कब्जा कर लिया इसके बाद गजनी को अपने भाई को सौंप कर भारत की तरफ अपना ध्यान लगाया । भारत में मुस्लिमों को स्थापित करने का श्रेय मुहम्मद गोरी को जाता है।
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Battle of Tarain (1191)
यही विचार कर उसने गौरी से निपटने का निर्णय लिया। अपने इस निर्णय को मूर्त रूप देने के लिए पृथ्वीराज एक विशाल सेना लेकर पंजाब की और रवाना हो गया। भयंकर लड़ाई के बीच पृथ्वीराज ने हांसी, सरस्वती और सरहिंद के किलों पर अपना अधिकार कर लिया।
इसी बीच सूचना मिली कि अनहीलवाडा में विद्रोहियों ने उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया है। पंजाब से वे अनहीलवाडा की और चल पड़े। उनके पीठ पीछे गौरी ने आक्रमण करके सरहिंद के किले को पुनः अपने कब्जे में ले लिया। पृथ्वीराज ने शीघ्र ही अनहीलवाडा के विद्रोह को कुचल दिया। अब पृथ्वीराज ने गौरी से निर्णायक युद्ध करने का निर्णय लिया। उसने अपनी सेना को नए ढंग से सुसज्जित किया और युद्ध के लिए चल दिया। रावी नदी के तट पर पृथ्वीराज के सेनापति खेतसिंह खंगार की सेना में भयंकर युद्ध हुआ परन्तु कुछ परिणाम नहीं निकला। यह देख कर पृथ्वीराज गौरी को सबक सिखाने के लिए आगे बढ़ा।
थानेश्वर से 14 मील दूर और सरहिंद के किले के पास तराइन नामक स्थान पर यह युद्ध लड़ा गया। तराइन के इस पहले युद्ध में राजपूतों ने गौरी की सेना के छक्के छुड़ा दिए।
गौरी के सैनिक प्राण बचा कर भागने लगे। जो भाग गया उसके प्राण बच गए, किन्तु जो सामने आया उसे गाजर-मूली की तरह काट डाला गया।
चैाहान इसी तरफ करीब 17 बार (कुछ इतिहासकार 23 बार कहते हैं। ) खदेढ़ा और हर बार वह बचकर निकल जाता । राजपूतों में यह परम्परा थी कि जो माफी मांग लेता या निहत्थे दुश्मन पर हमला नहीं करते थे। गौरी इसी का फायदा हर बार उठाता गया ।
इसी बीच सूचना मिली कि अनहीलवाडा में विद्रोहियों ने उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया है। पंजाब से वे अनहीलवाडा की और चल पड़े। उनके पीठ पीछे गौरी ने आक्रमण करके सरहिंद के किले को पुनः अपने कब्जे में ले लिया। पृथ्वीराज ने शीघ्र ही अनहीलवाडा के विद्रोह को कुचल दिया। अब पृथ्वीराज ने गौरी से निर्णायक युद्ध करने का निर्णय लिया। उसने अपनी सेना को नए ढंग से सुसज्जित किया और युद्ध के लिए चल दिया। रावी नदी के तट पर पृथ्वीराज के सेनापति खेतसिंह खंगार की सेना में भयंकर युद्ध हुआ परन्तु कुछ परिणाम नहीं निकला। यह देख कर पृथ्वीराज गौरी को सबक सिखाने के लिए आगे बढ़ा।
थानेश्वर से 14 मील दूर और सरहिंद के किले के पास तराइन नामक स्थान पर यह युद्ध लड़ा गया। तराइन के इस पहले युद्ध में राजपूतों ने गौरी की सेना के छक्के छुड़ा दिए।
गौरी के सैनिक प्राण बचा कर भागने लगे। जो भाग गया उसके प्राण बच गए, किन्तु जो सामने आया उसे गाजर-मूली की तरह काट डाला गया।
चैाहान इसी तरफ करीब 17 बार (कुछ इतिहासकार 23 बार कहते हैं। ) खदेढ़ा और हर बार वह बचकर निकल जाता । राजपूतों में यह परम्परा थी कि जो माफी मांग लेता या निहत्थे दुश्मन पर हमला नहीं करते थे। गौरी इसी का फायदा हर बार उठाता गया ।
सुल्तान मुहम्मद गौरी युद्ध में बुरी तरह घायल हुआ। अपने ऊँचे तुर्की घोड़े से वह घायल अवस्था में गिरने ही वाला था की युद्ध कर रहे एक उसके सैनिक की दृष्टि उस पर पड़ी। उसने बड़ी फुर्ती के साथ गौरी के घोड़े की कमान संभाल ली और कूद कर गौरी के घोड़े पर चढ़ गया और घायल गौरी को युद्ध के मैदान से निकाल कर ले गया। नेतृत्वविहीन गौरी की सेना में खलबली मच चुकी थी। तुर्क सैनिक राजपूत सेना के सामने भाग खड़े हुए। पृथ्वीराज की सेना ने 80 मील तक इन भागते तुर्कों का पीछा किया। तुर्क सेना ने वापस आने की हिम्मत नहीं की। इस विजय से पृथ्वीराज चैाहान को 7 करोड़ रुपये की धन सम्पदा प्राप्त हुई। इस धन सम्पदा को उसने अपने बहादुर सैनिको में बाँट दिया। इस विजय से सम्पूर्ण भारतवर्ष में पृथ्वीराज की धाक जम गयी और उनकी वीरता, धीरता और साहस की कहानी सुनाई जाने लगी ।
Battle of Tarain (1192)
इस बीच एक बड़ी घटना घटी जो पृथ्वी राज पतन के कारणों मंे से एक थी। वह थी कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी संयोगिता से विवाह। जयचंद और पृथ्वीराज की पुरानी दुश्मनी थी दोनों के बीच संघर्ष भी हो चुके थे। जयचंद अपनी बेटी के स्वयंवर के लिए एक आयोजन किया । जिसमें कई जगहों के राजा महाराज आए केवल पृथ्वीराज को निमंत्रण नहीं दिया गया । पृथ्वीराज और संयोगिता एक दूसरे से प्रेम करते थे।
फिर क्या था पृथ्वीराज सीधे स्वयंवर आयोजन से संयोगिता को उठा कर ले आए । ये बात जयचंद को नागवार गुजरी वो पृथ्वीराज से बदला लेना चाहता था। हर कीमत पर पृथ्वीराज चैाहान का विनाश करना चाहता था। मगर अकेले पृथ्वीराज चैाहान का समाना करने में वह असमर्थ था। इसीलिए उसने गौरी की मदद की । इस उम्मीद के साथ की गौरी पृथ्वीराज का मुकाबला करेगा और जीता तो जयचंद को दिल्ली की गद्दी मिल जाएगी।
फिर क्या था पृथ्वीराज सीधे स्वयंवर आयोजन से संयोगिता को उठा कर ले आए । ये बात जयचंद को नागवार गुजरी वो पृथ्वीराज से बदला लेना चाहता था। हर कीमत पर पृथ्वीराज चैाहान का विनाश करना चाहता था। मगर अकेले पृथ्वीराज चैाहान का समाना करने में वह असमर्थ था। इसीलिए उसने गौरी की मदद की । इस उम्मीद के साथ की गौरी पृथ्वीराज का मुकाबला करेगा और जीता तो जयचंद को दिल्ली की गद्दी मिल जाएगी।
गौरी को जब जयचंद ने दूत भेज कर पृथ्वीराज के खिलाफ सैन्य सहायता की पेशकश की तो गौरी फौरन मान गया । इतना ही नहीं जयचंद के कहने पर सोलंकी राजाओं ने भी पृथ्वीराज के खिलाफ गौरी की मदद करने को तैयार हो गए थे। इस तरह जो राजा पृथ्वीराज के साथ खड़े थे वे भी संयोगिता से विवाह करने के बाद उसके खिलाफ हो गए। गौरी जो पृथ्वीराज से 17 बार अपनी जान बचाकर भाग चुका था वह भी षडयंत्र करने लगा। पृथ्वीराज की सैन्य ताकत कमजोर हो रही थी। मगर उसके पास लाजवाब घुड़सवार सेना थी। 1192 में एक बार जयचंद और सोलंकी राजओं से समर्थन प्राप्त कर गौरी तराईन के मैदान में फिर पृथ्वीराज का समाना करने खड़ा हो गया। जबकि पृथ्वीराज को इस बात का पूरा विश्वास था कि उसे सोलंकियों अन्य राजाओं से समर्थन मिलेगा । मगर ऐसा नहीं हुआ ।
पृथ्वीराज की घुड़सवार सेना और गौरी की तिकड़ी सेना के बीच भीषण संघर्ष हुआ।
पृथ्वीराज की हार हुई उसे राजकवि चंदबरदाई के साथ बंदी बना लिया गया । युद्धबंधी के रूप में
उसे गौरी के सामने ले जाया गया।
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जहाँ उसने गौरी को घूर के देखा। गौरी ने उसे आँखें नीची करने के लिए कहा। पृथ्वीराज ने कहा की राजपूतो की आँखें केवल मृत्यु के समय नीची होती है। यह सुनते ही गौरी आगबबुला होते हुए उठा और उसने सैनिको को लोहे के गरम सरियों से उसकी आँखे फोड़ने का आदेश दिया।
इस प्रकार पृथ्वीराज की कहानी की गाथा अक्सर सुनने को मिलती है।
पृथ्वीराज को रोज अपमानित करने के लिए दरबार में लाया जाता था। जहाँ गौरी और उसके साथी पृथ्वीराज का मजाक उड़ाते थे। उन दिनों पृथ्वीराज
अपना समय अपने जीवनी लेखक और कवी चंद् बरदाई के साथ बिताता था। चंद् ने पृथ्वीराज रासो नाम से उसकी जीवनी कविता में पिरोई थी।
पृथ्वीराज को आवाज की दिषा में आँख बंद कर शिकार को भेदने की कला थी। गौरी को पता चला तो गौरी ने तीरंदाजी का एक खेल अपने यहाँ आयोजित करवाया। चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने गौरी को मारने की यह योजना तैयार कर ली थी।
वहां गौरी ने पृथ्वीराज से उसके तीरंदाजी कौशल को प्रदर्शित करने के लिए कहा। चंद बरदाई ने पृथ्वीराज को कविता के माध्यम से प्रेरित किया।
जो इस प्रकार है-
"चार हाथ चैबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चैाहान ।"
पृथ्वीराज चैाहान ने तीर को गोरी के सीने में उतार दिया और वो वही तड़प तड़प कर मर गया ।
कुछ इतिहासकार इस घटना से सहमत नहीं है इतिहासकार अबुल फजल और अन्य मानते हैं कि पृथ्वीराज को बंदी बनाकर गौरी अपने साथ गजनी ले गया जहाँ उसकी आँखे निकाल ली गई और बाद में मौत हो गयी।
जयचंद को लेकर सवाल
उसे कुछ इतिहासकार गद्दार मानते हैं । मगर इतिहास में ऐसा कोई प्रमाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है जिसके बिना पर यह कहा जा सके की जयचंद ने गौरी की मदद की और पृथ्वीराज के विरूद्ध उसने गौरी को आमंत्रित किया । अगर जयचंद ने गौरी की मदद की थी तो तराईन के युद्ध के एक साल बाद क्यों गौरी कन्नौज पर आक्रमण किया व जयचंद को मार कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया । वह चाहता तो जयचंद को बतौर गर्वनर नियुक्त कर कन्नौज पर अधिकार चला सकता था। मगर ऐसा नहीं हुआ । उसने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन एबक को गर्वनर बनाकर वापस गजनी लौट गया ।
तराईन के पहले युद्ध में गौरी से लड़ने के लिए पृथ्वीराज ने छोटे बड़े सभी राजाओं को आमंत्रित किया वे सभी एक साथ खड़े भी हुए तभी तो गौरी की उस युद्ध में हार हुई और वह जान बचाकर भागा।
ऐसा एक नहीं कई बार हुआ।
संयोगिता और पृथ्वीराज के विवाह को लेकर में इतिहासकारों में मतभेद है । क्यों एतिहासिक साक्ष्यों में जयचंद की किसी बेटी का जिक्र नहीं मिलता है।
गोरी का अंत
गक्कर जाति के विद्रोह को दबाने जब 1206 में वापस भारत आया तो लाहौर के पास गक्कर जाति के लोंगों ने गौरी की हत्या उस वक्त कर दी जब वह अपने टेंट में आराम कर रहा था। इस तरह मुहम्मद गौरी का अंत हो गया और फिर दिल्ली सल्तनत कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में आ गई ।
कैसे जानने के लिए क्लिक कीजिए।
दिल्ली सल्तनत
तराईन के पहले युद्ध में गौरी से लड़ने के लिए पृथ्वीराज ने छोटे बड़े सभी राजाओं को आमंत्रित किया वे सभी एक साथ खड़े भी हुए तभी तो गौरी की उस युद्ध में हार हुई और वह जान बचाकर भागा।
ऐसा एक नहीं कई बार हुआ।
संयोगिता और पृथ्वीराज के विवाह को लेकर में इतिहासकारों में मतभेद है । क्यों एतिहासिक साक्ष्यों में जयचंद की किसी बेटी का जिक्र नहीं मिलता है।
गोरी का अंत
गक्कर जाति के विद्रोह को दबाने जब 1206 में वापस भारत आया तो लाहौर के पास गक्कर जाति के लोंगों ने गौरी की हत्या उस वक्त कर दी जब वह अपने टेंट में आराम कर रहा था। इस तरह मुहम्मद गौरी का अंत हो गया और फिर दिल्ली सल्तनत कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में आ गई ।
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