Dec 23, 2020

भारतीय संविधान का इतिहास

भारतीय संविधान के वर्तमान आधार को समझने के लिए हमें इतिहास में पीछे मुड़कर देखना होगा हालांकि वर्तमान संविधान का इतिहास 1600 ईसवी से पूर्व का नहीं है  
प्राचीन भारत की संवैधानिक व्यवस्था:- 
प्राचीन भारत में देश के विभिन्न भागों मैं ऐसी संवैधानिक व्यवस्था विद्यमान थी जो  लोकतांत्रिक व्यवस्था का आभास देती है।

प्राचीन हिंदू ग्रंथों में राज व्यवस्था और राजा के कर्तव्यों का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में राजा धर्म ग्रंथों का अनुसरण करते हुए शासन व्यवस्था का संचालन करते थे। प्राचीन ग्रंथ  वेदों में आम सभा और समिति का उल्लेख मिलता है जो शासन संचालन के कार्य में राजा का सहयोग करती थी, अन्य राज व्यवस्था से संबंधित ग्रंथों में कौटिल्य का अर्थशास्त्र बौद्ध तथा जैन धर्मों के ग्रंथ मनुस्मृति आदि प्रमुख है। लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व भारत में 16 महाजनपदों का उदय हुआ। इनमें से अधिकतर राजतंत्रत्मक थे, किंतु वज्जि और मल्ल नाम के महाजनपद गणतंत्र थे। इन राज्यों में शासन राजा द्वारा नहीं चलाए जाते थे। इन राज्यों में शासन व्यवस्था गण या संघ नाम की समिति द्वारा चलाया जाता था।
इस प्रकार हमारा देश लोकतांत्रिक

विधियों और व्यवहार से प्राचीन काल से ही परिचित था पर वर्तमान संविधान का स्वरूप अलग है जिसे गढ़ने  के कार्य की शुरुआत अंग्रेजों ने की थी।

वर्तमान संविधान के स्वरूप को समझने के लिए और संविधान को अध्ययन सुविधा की दृष्टि से तीन भागों में बांटा जा सकता है।
(1)  ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन संविधानिक सुधार।
(2)  ब्रिटिश पार्लियामेंट के अधीन संवैधानिक सुधार।
(3)  संविधान सभा द्वारा संविधान का निर्माण
[  1  ] ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन संवैधानिक सुधार
                अंग्रेज व्यापारियों के एक दल ने 1599 को ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन किया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से व्यापार करने का शाही चार्टर 31 दिसंबर सन 1600 को प्राप्त कर लिया। देश की केंद्रीय शक्ति, मुगल सम्राट औरंगजेब की 1707 में मृत्यु के बाद कमजोर पड़ गई। भारतीय राजाओं के आपसी फूट का लाभ उठाकर अंग्रेज व्यापारी  शासक की भूमिका में आ गए। 1757 के प्लासी का युद्ध और 1764 के बक्सर युद्ध में मिली सफलता के साथ देश के एक बड़े भूभाग पर अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो गया। कंपनी शासन के अधीन 1726 का राज लेख (the charter act of 1726) महत्वपूर्ण है। इस राज लेख से पूर्व विधि बनाने का अधिकार इंग्लैंड में स्थित निदेशक बोर्ड को था। इस राज लेख द्वारा विधि बनाने का अधिकार भारत में स्थित कोलकाता, मुंबई, और चेन्नई प्रेसीडेंसी के राज्यपाल और उसकी परिषद को दे दिया गया।

                  कंपनी के कर्मचारी 1726 के राज लेख के बाद निरंकुश हो गए, और हर तरीके से धन कमाने का प्रयास करने लगे और भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया। जिस पर लगाम लगाने के लिए रेगुलेटिंग एक्ट 1773 में कंपनी द्वारा लाया गया।

रेगुलेटिंग एक्ट 1773 :--
                   भारतीय व्यापार में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनियमितता पर रिपोर्ट देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लॉर्ड नार्थ द्वारा 1772 में एक गुप्त संसदीय समिति का गठन किया। जिसने 1773 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया इस प्रतिवेदन के आधार पर रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया गया।

       इस एक्ट की मुख्य विशेषताएं निम्न थी
1) 1726 के एक्ट की तरह इसका उद्देश्य सत्ता हस्तांतरित करना नहीं था। अपितु कंपनी की भारत में कार्यप्रणाली पर ब्रिटिश संसद का नियंत्रण स्थापित करना था।
2)     1773 के रेगुलेटिंग एक्ट को भारत में कंपनी शासन के लिए प्रथम बार लिखित संविधान के रूप में माना जा सकता है यह ब्रिटिश संसदीय नियंत्रण की शुरुआत थी।
3)      बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन मद्रास और मुंबई प्रेसिडेंसी कर दिया गया। बंगाल के गवर्नर को गवर्नर जनरल पद नाम दे दिया गया, प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स था।
4)       समस्त भारत के अंग्रेजी क्षेत्रों का शासन बंगाल के गवर्नर जनरल और उसके चार सदस्यीय परिषद में केंद्रित किया गया, परिषद के निर्णय बहुमत से करने की व्यवस्था थी।
5)       कोलकाता में उच्चतम न्यायालय की स्थापना इस अधिनियम द्वारा 1774 ईस्वी में की गई। इस न्यायालय को दीवानी, फौजदारी, जल सेना, और धार्मिक मामलों में अधिकतम अधिकार दिया गया, साथ ही यह एक अभिलेख न्यायालय भी था। इस न्यायालय में निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड स्थित प्रिवी काउंसिल में अपील की व्यवस्था भी की गई थी।
6)        इस उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और तीन अपर न्यायाधीश होते थे सर एलिजा इंपे इस न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश तथा चेंबर्स, हाइड और लेमिंस्टर अपर न्यायाधीश नियुक्त हुए।
7)       कंपनी के संचालक मंडल के सदस्यों की संख्या 24 थी, और कार्यकाल 4 वर्ष। भारत से वापसी के 2 वर्ष के बाद ही कोई व्यक्ति संचालक मंडल का सदस्य बन सकता था।
8)         अंग्रेजी क्षेत्रों के प्रशासन के लिए, गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को नियम अध्यादेश बनाने का अधिकार दिया गया।

एक्ट आफ सेटेलमेंट 1781 ;--
1)      रेगुलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए इस एक्ट को पारित किया गया था।
2)       इस एक्ट के अधीन गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को कोलकाता, मुंबई, और मद्रास, प्रेसीडेंसी  के अलावा बंगाल, बिहार, और उड़ीसा के दीवानी क्षेत्रों के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ था।

पिट्स इंडिया एक्ट 1784 ;--
रेगुलेटिंग एक्ट की कमियों, और ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों में बढ़ते भ्रष्टाचार, गिरते अनुशासन, कुशासन  के विरुद्ध यह एक्ट पास किया गया इसकी विशेषताएं निम्न थी:-
1)     कंपनी शासन के राजनीतिक दायित्व का भार 6 सदस्य नियंत्रण मंडल को सौंप दिया गया।
2)      नियंत्रण मंडल को भारत में कंपनी की गतिविधियों, आदेशों, निर्देशों को मान्य या अमान्य करने का अधिकार प्राप्त था।
3)      गवर्नर जनरल के परिषद की संख्या 4 से 3 कर दी गई और युद्ध, संधि, राजस्व, सैन्य शक्ति, देसी रियासतों, आदि के नियंत्रण और  अधीक्षण का अधिकार दिया गया।
4)       इस अधिनियम द्वारा भारतीय प्रदेशों को ब्रिटिश अधिकृत भारतीय प्रदेश से संबोधित किया गया।
5)         प्रांतीय शासन को केंद्रीय आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। अन्यथा प्रांतीय शासन को बर्खास्त करने का अधिकार गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को था।
6)          कंपनी के कर्मचारियों को उपहार लेने पर प्रतिबंध लगाया गया। साथ ही गलत आचरण के लिए मुकदमा चलाने के लिए इंग्लैंड में विशेष कोर्ट की स्थापना भी की गई।

1786 का अधिनियम :--
         इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल की शक्तियों में वृद्धि की गई, गवर्नर जनरल को विशेष परिस्थितियों में परिषद के निर्णय को रद्द करने तथा अपने निर्णय को लागू करने का अधिकार प्राप्त हुआ, गवर्नर जनरल को प्रधान सेनापति की शक्तियां भी प्रदान कर दी गई।

1793 का राजलेख (The charter act of 1793). :-
यह अधिनियम भी कंपनी के क्रियाकलापों में सुधार के लिए पारित किया गया था।
1)       गवर्नर जनरल और उसके परिषद के लिए लिखित विधि द्वारा प्रशासन की कार्यप्रणाली को सुनिश्चित किया गया, और इस कानून और विधियों की व्याख्या का अधिकार न्यायालयों को दे दिया गया।
2)       गवर्नर जनरल की परिषद का सदस्य होने के लिए 12 वर्षों का अनुभव अनिवार्य कर दिया गया।
3)       परिषद के सदस्यों को भारतीय राजस्व से वेतन देने का प्रावधान किया गया।

1813 का राजलेख (The charter act of 1813) ;---
संपूर्ण भारतीय क्षेत्रों पर एकाधिकार जमाने के बाद अब अंग्रेज व्यापक प्रशासनिक और विधिक फेरबदल करके, शोषण की रफ्तार को, और बढ़ाना चाहते थे, जिसके लिए इस राज लेख में व्यापक प्रावधान किया। इस राजलेख मुख्य विशेषताएं निम्न थी:-
(1)        भारत से व्यापार करने का ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। अब कोई भी ब्रिटिश नागरिक भारत से व्यापार करने के लिए स्वतंत्र था।
(2)         ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार और धर्मांतरण की अनुमति इस राज लेख से प्राप्त हुई।
(3)         स्थानी स्वायत्तशासी संस्थाओं को, करारोपण का अधिकार प्राप्त हुआ, और आय व्यय के लेखांकन का प्रावधान भी किया गया।
(4)          कंपनी के व्यय पर अधिकतम 20,000 अंग्रेज सैनिक रखने की व्यवस्था हुई।
(5)         कंपनी के व्यापार एकाधिकार समाप्त करने के बदले, कंपनी को यह लाभ दिया गया, वह आगामी 20 वर्षों के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण बनाए रखें।
(6)        भारतीयों की शिक्षा पर एक लाख वार्षिक धनराशि के व्यय करने का प्रावधान किया गया

1833 का राजलेख (The charter act of 1833) :-
वेलेजली की सहायक संधि से अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित भारतीय क्षेत्रों में व्यापक वृद्धि हुई। भारतीय क्षेत्रों को नियंत्रित करने और एकाधिकार मजबूत करने के लिए, ब्रिटिश संसद में 1833 का राजलेख लाया जिसकी मुख्य विशेषताएं निम्न थी
1)      चाय और चीन के साथ कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया।
2)       बंगाल के गवर्नर जनरल को समस्त भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया, और प्रशासनिक व्यवस्था को केंद्रीकृत किया गया।
3)        कंपनी के सैनिक, असैनिक, प्रशासनिक निरीक्षण, और नियंत्रण का अधिकार भारत के गवर्नर जनरल को सौंपा गया।
4)         उपरोक्त प्रावधानों के अनुरूप संपूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को दिया गया।
5)         गवर्नर जनरल की परिषद में चौथे सदस्य को विधि बनाने के लिए सम्मिलित किया गया। (कानून/विधि मंत्री)।
6)        संपूर्ण देश के लिए एक बजट की व्यवस्था की गई समस्त अधिकार गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को सौंपा गया।
7)         भारत में दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया गया, जिसके फलस्वरूप 1843 में दास प्रथा के समाप्ति की घोषणा हुई।
8)          भारत में संविधान निर्माण की पहली आंशिक झलक 1833 के चार्टर एक्ट में दिखाई देती है।
9)           भारत में प्रचलित नियमों और प्रथाओं को आलेखित करने के लिए एक आयोग का गठन हुआ, जिसके अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले थे।

1853 का राजलेख (The charter act of 1853)
1853 का चार्टर एक्ट अंतिम चार्टर एक्ट था। इस एक्ट ने भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापक बदलाव किया, और अपना प्रभाव लंबे समय तक शासन व्यवस्था पर डाला।
                डलहौजी की हड़प नीति या डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स के अंतर्गत, कई राज्य अंग्रेजी क्षेत्रों में मिला लिए गए, और उन राज्यों के विरोध के कारण अंग्रेजों ने कुछ कठोर प्रशासनिक, और नीतिगत निर्णय लिए जिससे इन राज्यों के असंतोष को दबाया जा सके, इस राजलेख के प्रमुख प्रावधान निम्न थे
1)       कंपनी के अधीन कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगिता परीक्षा अनिवार्य कर दी गई।
2)         विधि सदस्य के अस्थाई पद को गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में स्थाई कर दिया गया।
3)         विधायी और प्रशासनिक कार्यों को अलग किया गया।
4)        ब्रिटिश संसद को अधिकार दिया गया कि, वह भारतीय क्षेत्रों पर कंपनी के शासन को समाप्त कर सके।

[  2  ] ब्रिटिश पार्लियामेंट के अधीन संवैधानिक सुधार
              अब तक के संवैधानिक विकास में, जहां ब्रिटिश पार्लियामेंट अप्रत्यक्ष रूप से कंपनी शासन को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही थी। उसने कंपनी शासन को समाप्त करके प्रत्यक्ष रूप से भारतीय शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली।
                 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने कंपनी प्रशासन के भ्रष्टाचार, लूट, और प्रशासनिक अक्षमता, की पोल खोल कर रख दी थी। इस विद्रोह ने अंग्रेजों को इस तथ्य का भान करा दिया था कि तलवार के बल पर जीते गए भारतीय प्रदेशों पर तलवार के दम पर अधिक समय तक  शासन(शोषण)  करना संभव नहीं है।
                प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश संसद ने  प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन किया, अप्रैल माह में ब्रिटिश संसद में प्रस्ताव स्वीकृत किया। इस प्रस्ताव के माध्यम से भारत में उत्तरदाई शासन की स्थापना के लिए विधेयक लाया गया जिसे 2 अगस्त 1958 को स्वीकृत और लागू किया गया।
              इस चरण में अगला कदम महारानी विक्टोरिया की घोषणा थी। ब्रिटिश संसद में स्वीकृत अधिनियम की विशेषताएं निम्न थी
1)            भारत में कंपनी के समस्त अधिकारों को समाप्त करके महारानी की ओर से शासन करने के लिए भारत राज्य सचिव (Secretary of state for India) के पद का सृजन किया गया ।
2)             भारत राज्य सचिव की सहायता और सलाह के लिए 15 सदस्यों की भारत परिषद का गठन हुआ। जिसमें 8 सदस्य ब्रिटिश सरकार की ओर से और 7 सदस्य कंपनी के द्वारा नियुक्त किए गए।
3)               कंपनी की सेना आफ ब्रिटिश क्रॉउन की सेना बन गई।
4)              भारत के राज्य सचिव को ब्रिटिश संसद के समक्ष, भारत के बजट को प्रति वर्ष प्रस्तुत करने का दायित्व दिया गया। लॉर्ड स्टेनली को पहला भारत राज्य सचिव बनाया गया।
5)               भारत के गवर्नर जनरल के पद नाम को बदलकर वायसराय कर दिया गया। लॉर्ड कैनिंग पहले वायसराय थे।
                  1857  की स्वतंत्रता संग्राम के बाद व्यापक प्रशासनिक फेरबदल के अलावा भारतीयों को विश्वास में लेने का प्रयास अंग्रेजी शासन द्वारा किया गया इसके लिए 1 नवंबर 1858 को लॉर्ड कैनिंग  ने (वर्तमान प्रयागराज) में रानी विक्टोरिया का घोषणा पत्र पढ़ा, और शाही दरबार लगाया। इस प्रकार इलाहाबाद 1 दिन के लिए देश की अघोषित राजधानी बन गई।

                  इस घोषणा पत्र के महत्वपूर्ण तथ्य निम्न थे।

1)          घोषणा पत्र के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति जाति और धर्म के भेदभाव के बिना, केवल अपनी योग्यता और शिक्षा के आधार पर लोक सेवा में प्रवेश पाने का अधिकारी होगा।
2)           भारतीय प्रजा को भी ब्रिटिश प्रजा के समान अधिकार दिए जाएंगे।
3)             भारतीय लोगों के प्राचीन अधिकारों परंपराओं आदि के सम्मान और न्याय, सद्भाव व धार्मिक सहिष्णुता का पालन किया जाएगा।

भारत परिषद अधिनियम 1861( Indian councils act) ;----
            1858 की महारानी विक्टोरिया की घोषणा के बाद, शासन में सुधारों की अतिशीघ्र आवश्यकता महसूस की जा रही थी। साथ ही भारतीय असंतोष, जो अंग्रेजी शासन के प्रति उत्पन्न हुआ था, उसे संतुलित करने के लिए नए सुधारों की आवश्यकता थी। भारतीय जनमानस में विश्वास उत्पन्न करने के लिए इस अधिनियम द्वारा, दो महत्वपूर्ण कार्य किए गए पहला भारतीय प्रतिनिधियों को विधायी कार्य से जोड़ना और दूसरा विधायी शक्तियां जो अब तक केंद्रीकृत थी, का विकेंद्रीकरण करना। अधिनियम की मुख्य विशेषताएं  निम्न थी।
1)          गवर्नर जनरल को नए प्रांतों के निर्माण और उस प्रांत के प्रमुखों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया।
2)           केंद्रीय सरकार को प्रांतीय सरकारों की तुलना में अधिक अधिकार दिए गए।
3)            गवर्नर जनरल और उसकी संस्था, कानून का निर्माण करने वाली संस्था बन गई, और उसे संपूर्ण देश के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया।
4)            नियम बनाने के अधिकार के तहत परिषद में विभागीय प्रणाली (port folio system)की शुरुआत लॉर्ड कैनिंग ने की।
5)          गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त हुआ, और यह अध्यादेश 6 माह तक व्यवहारिक रहता था।
6)            इस अधिनियम के तहत 1862 ईस्वी में गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने नवगठित विधान परिषद में तीन भारतीयों को नियुक्त किया 1  पटियाला के महाराज  2. बनारस के राजा 3.   सर दिनकर राव
                  इसके बाद ब्रिटिश संसद ने 1865 का अधिनियम पारित किया। जिसके अनुसार गवर्नर जनरल के विधायी अधिकारों में वृद्धि हुई और उसे प्रांतों की सीमाओं का निर्धारण करने का अधिकार प्राप्त हुआ
                  1869 में आए अधिनियम से गवर्नर जनरल को अप्रवासी भारतीयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार मिला।
                  1873 के अधिनियम के प्रावधान के अनुसार 1 जनवरी 1874 को ईस्ट इंडिया कंपनी को औपचारिक रूप से भंग कर दिया गया।
                    शाही उपाधि अधिनियम 1876 के प्रावधानों के अनुसार, गवर्नर जनरल की परिषद में लोक निर्माण विभाग जोड़ा गया, और 28 अप्रैल 1876  मे महारानी विक्टोरिया को भारत की शासिका घोषित किया गया, इस प्रकार औपचारिक रूप से भारत का ब्रिटिश सरकार को हस्तांतरण किया गया।


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May 18, 2020

Battle of Tarain

भारतीय इतिहास में तराईन का युद्ध ( Battle of Tarain ) एक ऐसा युद्ध था जिसने मुगलों के लिए मार्ग प्रशस्त किया । यह युद्ध पृथ्वीराज चैाहान और मोहम्मद गौरी के बीच लड़ा गया था। कौन है पृथ्वी राज चैाहान और मोहम्मद गौरी ?  क्यों लड़ा गई यह लड़ाई जानने के लिए इस ब्लाॅग को अंत तक पढ़िए

पृथ्वी राज चैाहान एक परिचय

पृथ्वीराज को राय पिथौरा कहा जाता था। वे दिल्ली और अजमेर के राजा थे ।
 मुहम्मद गौरी 1190 तक सम्पूर्ण पंजाब में राज करता था। और भटिंडा से अपना राजकाज करता था। चैाहान साम्राज्य स्थापित करने के लिए पृथ्वी राज चैाहान को पंजाब में कब्जा करना जरूरी था। और इसीलिए गौरी से निपटने का फैसला किया। 
12 वीं सदी के पहले इन क्षेत्रों में उनका दबदबा था। वे अपनी वीरता और कौशल के लिए काफी प्रसिद्ध थे। वे उत्तर भारत में चैाहान Dynasty  (1166 से 1196 तक चले ) के प्रमुख शासक थे। थे। पृथ्वीराज चैाहान का जन्म अजमेर राज्य के वीर राजपूत महाराजा सोमश्वर के यहाँ हुआ था। उनकी माता का नाम कपूरी देवी था जिन्हें  बारह वर्षों के बाद पुत्र रत्न कि प्राप्ति हुई थी। पृथ्वी राज की सेना में 300 हाथी ओर तीन लाख सैनिक थे। वे तलवार बाजी के जबरदस्त शौकिन थे । कहते हैं बचपन में उन्होंने शेर के साथ एक लड़ाई में शेर का जबड़ा फाड़ दिया था।


कौन है मोहम्मद गौरी ?


अफगानिस्तान में स्थित छोटे से घोर या गोर राज्य में शासक था मोहम्मद गोरी । उसने गजनी पर कब्जा कर लिया इसके बाद गजनी को अपने भाई को सौंप कर भारत की तरफ अपना ध्यान लगाया । भारत में मुस्लिमों को स्थापित करने का श्रेय मुहम्मद गोरी को जाता है।

पढ़िए तुर्की आक्रमण के बारे में 

Battle of Tarain (1191)

यही विचार कर उसने गौरी से निपटने का निर्णय लिया। अपने इस निर्णय को मूर्त रूप देने के लिए पृथ्वीराज एक विशाल सेना लेकर पंजाब की और रवाना हो गया। भयंकर लड़ाई के बीच पृथ्वीराज ने हांसी, सरस्वती और सरहिंद के किलों पर अपना अधिकार कर लिया।
इसी बीच सूचना मिली कि अनहीलवाडा में विद्रोहियों ने उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया है। पंजाब से वे अनहीलवाडा की और चल पड़े। उनके पीठ पीछे गौरी ने आक्रमण करके सरहिंद के किले को पुनः अपने कब्जे में ले लिया। पृथ्वीराज ने शीघ्र ही अनहीलवाडा के विद्रोह को कुचल दिया। अब पृथ्वीराज ने गौरी से निर्णायक युद्ध करने का निर्णय लिया। उसने अपनी सेना को नए ढंग से सुसज्जित किया और युद्ध के लिए चल दिया। रावी नदी के तट पर पृथ्वीराज के सेनापति खेतसिंह खंगार की सेना में भयंकर युद्ध हुआ परन्तु कुछ परिणाम नहीं निकला। यह देख कर पृथ्वीराज गौरी को सबक सिखाने के लिए आगे बढ़ा।
थानेश्वर से 14 मील दूर और सरहिंद के किले के पास तराइन नामक स्थान पर यह युद्ध लड़ा गया। तराइन के इस पहले युद्ध में राजपूतों ने गौरी की सेना के छक्के छुड़ा दिए।
गौरी के सैनिक प्राण बचा कर भागने लगे। जो भाग गया उसके प्राण बच गए, किन्तु जो सामने आया उसे गाजर-मूली की तरह काट डाला गया।
चैाहान इसी तरफ करीब 17 बार (कुछ इतिहासकार 23 बार कहते हैं। ) खदेढ़ा और हर बार वह बचकर निकल जाता । राजपूतों में यह परम्परा थी कि जो माफी मांग लेता या निहत्थे दुश्मन पर हमला नहीं करते थे। गौरी इसी का फायदा हर बार उठाता गया । 
सुल्तान मुहम्मद गौरी युद्ध में बुरी तरह घायल हुआ। अपने ऊँचे तुर्की घोड़े से वह घायल अवस्था में गिरने ही वाला था की युद्ध कर रहे एक उसके सैनिक की दृष्टि उस पर पड़ी। उसने बड़ी फुर्ती के साथ गौरी के घोड़े की कमान संभाल ली और कूद कर गौरी के घोड़े पर चढ़ गया और घायल गौरी को युद्ध के मैदान से निकाल कर ले गया। नेतृत्वविहीन गौरी की सेना में खलबली मच चुकी थी। तुर्क सैनिक राजपूत सेना के सामने भाग खड़े हुए। पृथ्वीराज की सेना ने 80 मील तक इन भागते तुर्कों का पीछा किया। तुर्क सेना ने वापस आने की हिम्मत नहीं की। इस विजय से पृथ्वीराज चैाहान को 7 करोड़ रुपये की धन सम्पदा प्राप्त हुई। इस धन सम्पदा को उसने अपने बहादुर सैनिको में बाँट दिया। इस विजय से सम्पूर्ण भारतवर्ष में पृथ्वीराज की धाक जम गयी और उनकी वीरता, धीरता और साहस की कहानी सुनाई जाने लगी । 

Battle of Tarain (1192)

इस बीच एक बड़ी घटना घटी जो पृथ्वी राज पतन के कारणों मंे से एक थी। वह थी कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी संयोगिता से विवाह।  जयचंद और पृथ्वीराज की पुरानी दुश्मनी थी दोनों के बीच संघर्ष भी हो चुके थे। जयचंद अपनी बेटी के स्वयंवर के लिए एक आयोजन किया । जिसमें कई जगहों के राजा महाराज आए केवल पृथ्वीराज को निमंत्रण नहीं दिया गया । पृथ्वीराज और संयोगिता एक दूसरे से प्रेम करते थे।
फिर क्या था पृथ्वीराज सीधे स्वयंवर आयोजन से संयोगिता को उठा कर ले आए । ये बात जयचंद को नागवार गुजरी वो पृथ्वीराज से बदला लेना चाहता था। हर कीमत पर पृथ्वीराज चैाहान का विनाश  करना चाहता था। मगर अकेले पृथ्वीराज चैाहान का समाना करने में वह असमर्थ था। इसीलिए उसने गौरी की मदद की । इस उम्मीद के साथ की गौरी पृथ्वीराज का मुकाबला करेगा और जीता तो जयचंद को दिल्ली की गद्दी मिल जाएगी। 

गौरी को जब जयचंद ने दूत भेज कर पृथ्वीराज के खिलाफ सैन्य सहायता की पेशकश  की तो गौरी फौरन मान गया । इतना ही नहीं जयचंद के कहने पर सोलंकी राजाओं ने भी पृथ्वीराज के खिलाफ गौरी की मदद करने को तैयार हो गए थे। इस तरह जो राजा पृथ्वीराज के साथ खड़े थे वे भी संयोगिता से विवाह करने के बाद उसके खिलाफ हो गए। गौरी जो पृथ्वीराज से 17 बार अपनी जान बचाकर भाग चुका था वह भी षडयंत्र करने लगा। पृथ्वीराज की सैन्य ताकत कमजोर हो रही थी। मगर उसके पास लाजवाब घुड़सवार सेना थी। 1192 में एक बार जयचंद और सोलंकी राजओं से समर्थन प्राप्त कर गौरी तराईन के मैदान में फिर पृथ्वीराज का समाना करने खड़ा हो गया। जबकि पृथ्वीराज को इस बात का पूरा विश्वास था कि उसे सोलंकियों अन्य राजाओं से समर्थन मिलेगा । मगर ऐसा नहीं हुआ ।
पृथ्वीराज की घुड़सवार सेना और गौरी की तिकड़ी सेना के बीच भीषण संघर्ष हुआ।
पृथ्वीराज की हार हुई उसे राजकवि चंदबरदाई के साथ बंदी बना लिया गया । युद्धबंधी के रूप में
उसे गौरी के सामने ले जाया गया।

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जहाँ उसने गौरी को घूर के देखा। गौरी ने उसे आँखें नीची करने के लिए कहा। पृथ्वीराज ने कहा की राजपूतो की आँखें केवल मृत्यु के समय नीची होती है। यह सुनते ही गौरी आगबबुला होते हुए उठा और उसने सैनिको को लोहे के गरम सरियों से उसकी आँखे फोड़ने का आदेश दिया।

इस प्रकार पृथ्वीराज की कहानी की गाथा अक्सर सुनने को मिलती है।

पृथ्वीराज को रोज अपमानित करने के लिए दरबार में लाया जाता था। जहाँ गौरी और उसके साथी पृथ्वीराज का मजाक उड़ाते थे। उन दिनों पृथ्वीराज
अपना समय अपने जीवनी लेखक और कवी चंद् बरदाई के साथ बिताता था। चंद् ने पृथ्वीराज रासो नाम से उसकी जीवनी कविता में पिरोई थी।
पृथ्वीराज को आवाज की दिषा में आँख बंद कर शिकार को भेदने की कला थी। गौरी को पता चला तो गौरी ने तीरंदाजी का एक खेल अपने यहाँ आयोजित करवाया। चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने गौरी को मारने की यह योजना तैयार कर ली थी।

वहां गौरी ने पृथ्वीराज से उसके तीरंदाजी कौशल को प्रदर्शित करने के लिए कहा। चंद बरदाई ने पृथ्वीराज को कविता के माध्यम से प्रेरित किया।
जो इस प्रकार है-

"चार हाथ चैबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चैाहान ।"

पृथ्वीराज चैाहान ने तीर को गोरी के सीने में उतार दिया और वो वही तड़प तड़प कर मर गया ।
कुछ इतिहासकार इस घटना से सहमत नहीं है इतिहासकार अबुल फजल और अन्य मानते हैं कि पृथ्वीराज को बंदी बनाकर गौरी अपने साथ गजनी ले गया जहाँ उसकी आँखे निकाल ली गई और बाद में मौत हो गयी।

जयचंद को लेकर सवाल

उसे कुछ इतिहासकार गद्दार मानते हैं । मगर इतिहास में ऐसा कोई प्रमाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है जिसके बिना पर यह कहा जा सके की जयचंद ने गौरी की मदद की और पृथ्वीराज के विरूद्ध उसने गौरी को आमंत्रित किया । अगर जयचंद ने गौरी की मदद की थी तो तराईन के युद्ध के एक साल बाद क्यों गौरी कन्नौज पर आक्रमण किया व जयचंद को मार कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया । वह चाहता तो जयचंद को बतौर गर्वनर नियुक्त कर कन्नौज पर अधिकार चला सकता था। मगर ऐसा नहीं हुआ । उसने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन एबक को गर्वनर बनाकर वापस गजनी लौट गया । 
तराईन के पहले युद्ध में गौरी से लड़ने के लिए पृथ्वीराज ने छोटे बड़े सभी राजाओं को आमंत्रित किया वे सभी एक साथ खड़े भी हुए तभी तो गौरी की उस युद्ध में हार हुई और वह जान बचाकर भागा।
ऐसा एक नहीं कई बार हुआ।   
संयोगिता और पृथ्वीराज के विवाह को लेकर में इतिहासकारों में मतभेद है । क्यों एतिहासिक साक्ष्यों में जयचंद की किसी बेटी का जिक्र नहीं मिलता है।
गोरी का अंत
गक्कर जाति के विद्रोह को दबाने जब 1206 में वापस भारत आया तो लाहौर के पास गक्कर जाति के लोंगों ने गौरी की हत्या उस वक्त कर दी जब वह अपने टेंट में आराम कर रहा था। इस तरह मुहम्मद गौरी का अंत हो गया और फिर दिल्ली सल्तनत कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में आ गई ।

कैसे जानने के लिए क्लिक कीजिए।
दिल्ली सल्तनत 




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Dec 19, 2019

Goa: इतिहास के पन्नों से

गाय चराने वालों का देश: 

महाभारत में गोवा का उल्लेख गोपराष्ट्र यानी गाय चरानेवालों के देश के रूप में मिलता है। अन्य नामों में गोवे, गोवापुरी, गोपकापाटन और गोमंत प्रमुख हैं। टोलेमी ने गोवा का उल्लेख वर्ष 200 के आस-पास गोउबा के रूप में किया है। अरब के मध्युगीन यात्रियों ने इस क्षेत्र को चंद्रपुर और चंदौर के नाम से इंगित किया है जो मुख्य रूप से एक तटीय शहर था। जिस स्थान का नाम पुर्तगाल के यात्रियों ने गोवा रखा वह आज का छोटा सा समुद्र तटीय शहर गोआ-वेल्हा है। बाद में उस पूरे क्षेत्र को गोवा कहा जाने लगा जिस पर पुर्तगालियों ने कब्जा किया।
Goa
दक्षिण कोंकण क्षेत्र का उल्लेख गोवाराष्ट्र के रूप में पाया जाता है। संस्कृत के कुछ कई पुराने स्रोतों में गोवा को गोपकपुरी और गोपकपट्टन कहा गया है जिनका उल्लेख अन्य ग्रंथों के अलावा हरिवंशम और स्कंद पुराण में मिलता। गोवा को बाद में कहीं-कहीं गोअंचल भी कहा गया है।

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इतिहास


गोवा के लंबे इतिहास की शुरुआत तीसरी सदी ईसा पूर्व से शुरू होती है जब यहां मौर्य वंश के शासन की स्थापना हुई थी। बाद में पहली सदी के शुरुआत में इस पर कोल्हापुर के सातवाहन वंश के शासकों का अधिकार स्थापित हुआ और फिर बादामी के चालुक्य शासकों ने इस पर वर्ष 580 से 750 तक राज किया। इसके बाद के सालों में इस पर कई अलग अलग शासकों ने अधिकार किया। वर्ष 1312 में गोवा पहली बार दिल्ली सल्तनत के अधीन हुआ लेकिन उन्हें विजयनगर के शासक हरिहर प्रथम द्वार वहां से खदेड़ दिया गया। अगले सौ सालों तक विजयनगर के शासकों ने यहां शासन किया और 1469 में गुलबर्ग के बहामी सुल्तान द्वारा फिर से दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बनाया गया। बहामी शासकों के पतन के बाद बीजापुर के आदिल शाह का यहां कब्जा हुआ जिसने गोआ-वेल्हा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।

पुर्तगालियों का कब्जा


इस शहर पर मार्च 1510 में अलफांसो-द-अल्बुकर्क के नेतृत्व में पुर्तगालियों का आक्रमण हुआ। गोवा बिना किसी संघर्ष के पुर्तगालियों के कब्जे में आ गया। पुर्तगालियों को गोवा से दूर रखने के लिए यूसूफ आदिल खां ने हमला किया। शुरू में उन्होंने पुर्तगाली सेना को रोक तो दिया लेकिन बाद में अल्बुकर्क ज्यादा बड़ी सेना के साथ लौटे और एक दुःसाहसी प्रतिरोध पर विजय प्राप्त कर उन्होंने शहर पर फिर से कब्जा कर लिया और एक हिन्दू तिमोजा को गोवा का प्रशासक नियुक्त किया। गोवा पूर्व दिशा में समूचे पुर्तगाली साम्राज्य की राजधानी बन गया। इसे लिस्बन के समान नागरिक अधिकार दिए गए और 1575 से 1600 के बीच यह उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा।

अंग्रेजों के कब्जे में


1809-1815 के बीच नेपोलियन ने पुर्तगाल पर कब्जा कर लिया और एंग्लो पुर्तगाली गठबंधन के बाद गोवा अपनेआप ही अंग्रेजी अधिकार क्षेत्र में आ गया। 1815 से 1947 तक गोवा में अंग्रेजों का शासन रहा और पूरे हिंदुस्तान की तरह अंग्रेजों ने वहां के भी संसाधनों का जमकर शोषण किया।
पुर्तगालियों के कब्जे में फिर से

आजादी के समय पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेजों से यह मांग रखी कि गोवा को भारत के अधिकार में दे दिया जाए। वहीं पुर्तगाल ने भी गोवा प
र अपना दावा ठोक दिया। अंग्रेजों की दोहरी नीति व पुर्तगाल के दबाव के कारण गोवा पुर्तगाल को हस्तांतरित कर दिया गया। गोवा पर पुर्तगाली अधिकार का तर्क यह दिया गया था कि गोवा पर पुर्तगाल के अधिकार के समय कोई भारत गणराज्य अस्तित्व में नहीं था।

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गोवा स्वतंत्रता आंदोलन


गोवा का स्वतंत्रता आंदोलन 1928 में शुरू हुआ जब गोवा के राष्ट्रवादियों ने मिलकर 1928 में मुंबई में ‘गोवा कांग्रेस समिति’ का गठन किया। गोवा कांग्रेस समिति के अध्यक्ष डॉ.टी.बी.कुन्हा थे। डॉ. टी. बी. कुन्हा को गोवा के राष्ट्रवाद का जनक माना जाता है। दो दशक तक लगभग गोवा का स्वतंत्रता आंदोलन थोड़ा धीमा रहा। 1946 में स्वतंत्रता सेना और प्रमुख समाजवादी नेता डॉ.राम मनोहर लोहिया के गोवा पहुंचने से आंदोलन को नई दिशा मिलती है। उन्होंने नागरिक अधिकारों के हनन के विरोध में गोवा में सभा करने की चेतावनी दे डाली। मगर इस विरोध का दमन करते हुए उनको गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।

भारतीय सेना की तैयारी


तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और रक्षामंत्री कृष्ण मेनन के बार-बार के आग्रह के बावजूद पुर्तगाली भारत को छोड़ने तथा झुकने को तैयार नहीं हुए। उस समय दमन-दीव भी गोवा का हिस्सा था। जब पुर्तगाली पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह को नहीं माने तो अंत में भारत के पास ताकत का इस्तेमाल ही एकमात्र विकल्प रह गया था। 1954 के मध्य में गोवा के राष्ट्रवादियों ने दादर और नगर हवेली की बस्तियों पर कब्जा कर लिया और भारत समर्थक प्रशासन की स्थापना की। 1961 में भारतीय सेना के तीनों अंगों को युद्ध के लिए तैयार हो जाने के आदेश मिले। मेजर जनरल के.पी. कैंडेथ को ’17 इन्फैंट्री डिवीजन’ और ’50 पैरा ब्रिगेड’ का प्रभार मिला। भारतीय सेना की तैयारियों के बावजूद पुर्तगालियों पर किसी भी प्रकार का असर नहीं पड़ा। भारतीय वायु सेना के पास उस समय छह हंटर स्क्वॉड्रन और चार कैनबरा स्क्वाड्रन थे।

गोवा मुक्ति अभियान


गोवा अभियान में हवाई कार्रवाई की जिम्मेदारी एयर वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के पास थी। भारतीय सेना ने 2 दिसंबर को ‘गोवा मुक्ति’ अभियान शुरू कर दिया। वायु सेना ने 8 और 9 दिसंबर को पुर्तगालियों के ठिकाने पर अचूक बमबारी की। भारतीय थल सेना और वायु सेना के हमलों से पुर्तगाली तिलमिला गए। इस तरह 19 दिसंबर, 1961 को तत्कालीन पुर्तगाली गवर्नर मैन्यू वासलो डे सिल्वा ने भारत के सामने समर्पण समझौते पर दस्तखत कर दिए। इस तरह भारत ने गोवा और दमन दीव को मुक्त करा लिया और वहां से पुर्तगालियों के 451 साल पुराने औपनिवेशक शासन को खत्म कर दिया। पुर्तगालियों को जहां भारत के हमले का सामना करना पड़ रहा था, वहीं दूसरी ओर उन्हें गोवा के लोगों का रोष भी झेलना पड़ रहा था।

जब पूर्ण राज्य बना गोवा


बाद में गोवा में चुनाव हुए और 20 दिसंबर, 1962 को श्री दयानंद भंडारकर गोवा के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने। गोवा के महाराष्ट्र में विलय की भी बात चली, क्योंकि गोवा महाराष्ट्र के पड़ोस में ही स्थित था। वर्ष 1967 में वहां जनमत संग्रह हुआ और गोवा के लोगों ने केंद्र शासित प्रदेश के रूप में रहना पसंद किया। बाद में 30 मई, 1987 को गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया और इस प्रकार गोवा भारतीय गणराज्य का 25वां राज्य बना।

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